Tuesday 28 October 2014

फूल हूँ पल दो पल का






मैं फूल हूँ पल दो पल का
खिलती हूँ रात के अकेले में
ख़ुशबू बिखेर क्षण भर मात्र हवा में 
लावारिश जाती हूँ गिर फिर किसी कोने में।

कोई तो समेटे मुझे सुबह हो जाने पर
बनाए मुझे किसी माला का शोभा
अर्पण पूजा की थाली में कर
सफल करे मेरा यह छोटा सा जीवन।

मैं फूल हूँ 
धरती में समाने के लिए
कोई देखे न देखे मैं खिलती रहूँ 
किसी की यादों में ही महकूँ

चाह नहीं गर्दिश की
ना कोई गंगा की तरंग की।

रचना: मीरा पाणिग्रही 
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