Tuesday 28 October 2014

क़ुबूल है, क़ुबूल है!

चाहे चले खंज़र या गोली भरमार,
बर्बाद तक वारदात हो या लम्बी खामोश जंग
हमें क़ुबूल , हमें क़ुबूल

फिर हो नशा बेहिसाब या
हम हो जाएँ बेनक़ाब ,
ख़ुदा फिर भी नज़र आये लावारिस पलों में ,
ये गुस्ताखी फिर क़ुबूल,फिर क़ुबूल

कुछ ख़ामी महसूस है
कुछ भी कभी महसूस नहीं
ये हकीकत अब साथ है
और बाकि कुछ खफीफ  है

कुछ ज़िन्दगी अभी भी बाकी है
कुछ लम्हे मेरी साथी हैं पर
साँसों के खर्च  का हिसाब
कोई खुशनुमा अलग़ से रखती है

ये कमिया ये खामियां फिर कुबूल, फिर क़ुबूल

रचना: प्रशांत पांडा 

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