ज़िंदगी को तलाश ने चले
और ज़िंदगी से दूर हो गये
कदम रखते ही अगाज़ यह थी
की मंज़िल ये नही
फिर भी जुड़े रहे
तराश ना जो बाकी था
खुद से अलग हो काफ़ी ना था
फिर उस मुकाम पह कायम रहे
की महफ़िल कभी तो रंग लाए
ऐ दोस्तों दिल की ना सूनी
ना उमीदो की
रुक गये किसी महफ़िल में
खुदसे जूदा हो हो कर भी
अलविदा कहने की हिम्मत
अब जूटा ना पाए
ना महफ़िल में
शामिल होने की ज़ुर्रत
नाम बेनाम सा हो गया
आपनो की गरात से
अब खामोश खुदसे मिलते है
जूड जाने की कोशिश में
आंसू भी मोती बन के रह गए
खुद को तलाश ने में
ना कारवाँ खत्महुई
ना महफ़िल से बेरगी
समय की दूरी कभी तो रुक जाए
ताकि में खुद को पा सकूँ
अपनों की महफ़िल में
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रचना: प्रशांत
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