Sunday 30 October 2016

ଜଳା ସଳିତାର ଇତିହାସ



ଦୀପ ମାଳାର ସହର ଆଜି ଉଦ୍ଭାସିତ 
ଊହଲାଦ, ଉନ୍ମାଦ , ରାତ୍ରି ଆଲୋକିତ I
କୁଟୁମ୍ବ ମିଳନ, ଭେଟି ଭାବର ଚଳନ
ଭୋଜି ଆମନ୍ତ୍ରଣ, ଆକାଶ ଜଳନ I
ଲକ୍ଷ୍ମୀ ଆବାହନ, କାଳୀମାର ପୂଜନ 
ଜୀବର ନିଧନ, ଧନ ବିସ୍ଫୋରଣ I
ବେଶ ପରିଧାନ, ବ୍ୟବସାୟଭି ନୂତନ 
ଆକାଶ କମ୍ପନ, ବ୍ୟବସାୟିକ ମିଳନ I
ଧରିତ୍ରୀ ବ୍ୟଥିତ, ବାରୂଦ ରଞ୍ଜିତ
ନିର୍ଧନ ଅତୃପ୍ତ, ଦହନ ଗଗନ ମରୁତ I
ନୁହେ ଦୀପାବଳି ବିକଟାଳ ହସ
ବଳି ବଳଶାଳୀ, ମଧୁର କର୍କଶ I
ରଣହୁଙ୍କାର, ଦୀପ ୟେ ନିହତ 
ଜଳା ସଳିତାର ଇତିହାସ ଯେ ନିନ୍ଦିତ I

डीशूम ज़िंदगी!



काले नज़र, छुभा मीठी जहर,
काले रातें, मुझे भाए सहर, 
काले नक़ाब, रात बे-हिसाब, 
काले यह प्यास, काले गिलास !!
काले चस्मे, तू दिखे भीड़मे, 
काले यह रात, काले यह बात, 
काले यह मन, तन की यह बन,
काले ढन्दा, बिंदास ये बंदा !!
काले चादर, सफेदी नज़र, 
काले पैसे, दे सबको नशे, 
काले नियम, काला यह सच,
काले रिवाज, काले आवाज़ !!

रचना : प्रशांत 

Monday 24 October 2016

फलसफा यही ज़िन्दगी का !





ख़तम सही हो ???
या हर बार शुरुआत नयी हो ???
तुझे पढ़ना मुश्किल ए ज़िंदगी,
समय बीत जाए, वो समय ना आए,
ना काया उमर पाए, साँस आए जाए,
ज़िंदगी तेरे पहचान क्यू छोटा होजाए,
बस तेरी कमाई आँकड़े मे डूब जाए....,
हर पल जियुं, या कल के पल सवारूं,
यह तय  हो जाना, क्यू हो मुश्किल,
जब ना यह साँस महफूज़ होगा,
काया से , तुझसे आज़ादी लेगा,
क्या होगा, महसूस ख़ालीपन होगा,
खाली जाएगा, खाली पल ले जाएगा..I

रचना : प्रशांत

Tuesday 4 October 2016

आज जीने दे!



आज जीने दे
इस रात को जीनेदे
इस ख्वाब को ज़ीनेदे
इस राज़ को ज़ीनेदे
आज ज़ीनेदे


आज ज़ीनेदे,
उस रात को ज़ीनेदे,
उस ख्वाबो को ज़ीनेदे,
उस राज़ को ज़ीनेदे,
आज ज़ीनेदे I 

आज ज़ीनेदे,
जल जल जीने दे,
बस तू ज़ीनेदे,
रात एक ज़ीनेदे,
पीनेदे बहजाने दे ,
तेरे साथ जीनेदे,
तेरे ख्वाब आनेदे,
बस आज ज़ीनेदे I 

रचना : प्रशांत 

प्रोहिबिशन की कर्फ्यू!

यह शहर कैसा,
शराब बदनाम यारों,
ख्वाइसों  मे ज़िंदा,
दफ़न हुकूमत मे यारों...

गम ना कर ,
चाहनेवाले तेरे इस ,
शहर मे आज भी ज़िंदा,
और उनकी चाहत से
यह शहर आज भी है ज़िंदा..

रचना : प्रशांत 

कुछ तो है बात...






कुछ तो है बात,
इन जाम मे यारों,
जो हम तेरे हुए,
खुद संभाल ना पाए,
पर समझ तुमको आए ..
.
रंग नशे का यह नही,
यह दिल का हे यारों,
क्या गम पराया हुए,
कुदरत का पैगाम यारों I

जीतने हो ख़तम ये जाम,
हसीन सा भर दे जखम ,
यह इल्ज़ाम किस लिए,
खाली महसूस जिंदगी यारों ,
ज़ख़्म और होजाए गहरा ,
निभाने या मिटाने से यारों I

रचना : प्रशांत 

Saturday 1 October 2016

ଶେଷ ଆବେଗ...

ଓଡିଶା ମାଟିର ଆମେ ଯେ ସନ୍ତାନ
ସେଇ ହେଉ ମୋର କର୍ମ ଭୂମି
ପ୍ରକୃତି ଭିତରେ ଭାଷା ଗନ୍ତାଘର
ସେଇ ହେଉ ତୀର୍ଥ ଭୂମି I
ଶୈଶବର ଛାୟା ଜରା ଶରୀରରେ
ଦେବଭୂମି ତଵ ଦେଵ
ଲୀନ ହେଇଯିବା ଧରା ପୃଷ୍ଠରୁ
ଠିକଣା ସମାପ୍ତ, ଆଉ ଆତ୍ମା
ଉଜ୍ଜୀବିତ ରହିଯିବ I
ଦେବତା ଆଶ୍ରୟ, ମାନବ ପ୍ରଶୟ
ନଥିବ ଆଗକୁ ଭୟ,
ପ୍ରାଣ ବାହାରିବ ଜଗାର ଆଶ୍ରୟେ
ରହିଯିବ ସେଇ ଠିକଣାରେ
କି ସୁନ୍ଦର ହେବ ଇତି ନ୍ୟାୟ
ନ ରହିବ ଆଉ ଭୟ I
ପୁରୀ ସ୍ୱର୍ଗଦ୍ୱାରେ ଉଦ୍ଧରିବ ତବ
ସାରଦା ବାଲିର ମୋହ
କିଛି ମୁଠା ତୋର ମୁଠାରେ ଧରିବ
ପାଉଁଶ ମୁଠିକ କଣେ ମିଶିଯିବ
ପୁଲକିତ ମୃତ୍ୟୁ
ଶେଷ ଭିକ୍ଷାରେ ହୋଇବ I-