Friday 18 November 2016

अगर ग़ालिब साब अपना कीमत लगाते...

अगर ग़ालिब साब अपना कीमत लगाते
महफ़िलोको खाली तड़पते , खो जाते
और आप जनाब भूके रहते और कहते
खरीद को सब मिलते, आँसू बेवफा गिरते I

रचना: प्रशांत

Wednesday 16 November 2016

हज़ार की मौत !



बेआबरू हुआ एक रिवाज
बेआबरू था एक समाज...
हम थे गम के नवाज़ 
खाली पॉकेट , सरकार पे नाज़ I 

एक कदम सही दिशा के और
कई उलझने, कई कमाई से चोर
बड़ी तकलीफ़ दिन गुज़रे चार 
अपनाही धन, फ़ासले थे दूर I 

काले धन खोज परिणाम
काश छुप गये, हुए ना-काम 
काले चेहरे का लगे इल्ज़ाम
हज़ार हज़ार नोटो पे लगाम..
एक शाम अपनाने पहुँचे मयखाने,
रंग थे गहरे, संग जाम अपनाए चेहरे 
आए पहुँचे तेरे दुआर-ए- प्यार
दीदार इस्क़ , नज़रे हुई चार I 

निकले शाम की लगाई कीमत,
मिली नसीब सदीओ की सादात,
अजीब था वो शाम-ए-जाम की नशा,
हुकूमत का धोका, चले प्याला और प्यासा I 

रचना : प्रशांत 

Monday 7 November 2016

वक़्त का मालिक





वक़्त किसी  का नही होता,
बच जाए तो खाली जाता, 
निकल जाए तो रो देता,
रुक जाए तो गिनती मे नही आता,
साथ दे तो जीवन सुधार देता I 

सफ़र रेल या आसमान का हो,
ऐ दोस्त पंख दोनो मे है,
अगर समय याद भर दे, 
मंज़िल को राह मुसाफिर दे I 

रचना : प्रशांत 

एक बार और सही...





एक बार और सही, 
यह सफ़र मुझे कहीं ले जाए,  
मेरा  शहर  मुझसे दूर हो जाए,
आजनाबी ठिकाने दिल अपनाए,
पल हसीन साथ ले आए, दे जाए I

ए खुदा बस इतनी दुआ हो,
तेरी तलाश यह ज़िंदगी हो,
कीमत मे, नसीब को हासिल ये आए,  
पुराने ठिकाने आए और साथ दे जाए I

रचना: प्रशांत 

ଏକା ଏକା କିଛି ଭାବେ



ନିଜ ପାଇଁ ସମୟକୁ ଯଦି 
କିଛି ଦେଇ ପାରେ କେବେ 
କଣ କଣ ଭାବେ ତେବେ
ମୁଯେ ଲେଖି ଦିଏ ଏବେ I 

କାହାକୁ ବା କିଛି କ୍ଷଣ 
ହୁଏ ଟେଲି ଯୋଗାଯୋଗ 
ଅବା ସମୟକୁ ନିରିଖେଇ 
ଇଏମଆଇର ଚାଲେ ଯୋଗ ବିୟୋଗ I 

ଜୀବନର ଅଙ୍କକଷା କଣ 
ସମୟର ପଶାଖେଳ ରାଜନୀତି 
ପିତୃ ସ୍ନେହ, ବାଲ୍ୟମୋହ ବଜାର ବିରତି 
ବଜାର ମୂଲ୍ୟ ଚଢାଅଙ୍କ ସାଇତି 
ସମାଜର ମୋହ, ଏଠି ନୁହେ ଦରନୀତି I

पासेंजेर वेटिंग लिस्ट १०



निकले या रुक जाए, 
कुछ ऐसा मन मे लिए, 
निकल पड़े स्टेशन की ओर, 
पुराना था रिश्ते  गहरे, 
कहीं मिल जाए पुराने चेहरे I

रेलवे की कहानी बड़ी मस्तानी, 
कभी दाम पूरा ले, पर नाम ना दे, 
पल पल आवाज़ दे, और छोड़ दे, 
तेरी मंज़िल के तरह वो निकले, 
तुझे ले, यह तुझे छोड़ चले I 

कुछ एक कहानी आज हुआ,
नाम बदला वेट लिस्ट 10 हुआ, 
समय हुआ और वोही रुक गया,
निकल पड़े इस अजनबी नाम से,
बहुत थे साथी, अजनबी हम हुए,
हँसते रहे, दीवाली बधाई देते रहे,
कोई हमदर्द साथ दे और ले ,
कहानी के मोड़ कुछ तो बदले, 
उमीद, ना उमीद के थे मेले,
चल पडे अब घर को निकले I

रचना : प्रशांत