क्या कहें के हम आज फिर,
गुम हुए खुद से,
निभाए रिश्ता कितने भी इन गलियों से ,
फिर गुम हुए इनसे I
कुछ आज़ादी इतनी सी, अगर मिल जाती,
जी लेते हम भी एक अपनी पहचान
ना होता एहसास नकामी नासमझकी,
ना होता परछाई
बेवस, कायासे अंजान I
ना हुए कल के, अब हम
ना जुड़ पाए किसी आज से
आदेश हो यारो यह भी केह दे ,
या ना कभी यह भी कह पाये,
एक हसीन वक़्त की सज़ा,
काटे, गुम हुए इनसे,
वोही वक़्त की तलाश मे,
फिर गुम हुए खुद से I
रचना :प्रशांत