बेआबरू हुआ एक रिवाज
बेआबरू था एक समाज...
हम थे गम के नवाज़
खाली पॉकेट , सरकार पे नाज़ I
एक कदम सही दिशा के और
कई उलझने, कई कमाई से चोर
बड़ी तकलीफ़ दिन गुज़रे चार
अपनाही धन, फ़ासले थे दूर I
काले धन खोज परिणाम
काश छुप गये, हुए ना-काम
काले चेहरे का लगे इल्ज़ाम
हज़ार हज़ार नोटो पे लगाम..
एक शाम अपनाने पहुँचे मयखाने,
रंग थे गहरे, संग जाम अपनाए चेहरे
आए पहुँचे तेरे दुआर-ए- प्यार
दीदार इस्क़ , नज़रे हुई चार I
निकले शाम की लगाई कीमत,
मिली नसीब सदीओ की सादात,
अजीब था वो शाम-ए-जाम की नशा,
हुकूमत का धोका, चले प्याला और प्यासा I
रचना : प्रशांत
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