मदहोशी की आलम थी,
होश की बात निकल आई I
डर डर के कुछ लिख डाले,
मज़ाक थे हम , नज़र दे डाले
बात होश की थी ,
आज बेहोशी में जुबाँ दे डाले I
कुछ जो, ना बने हक़ीकत
बयान हुआ और खो गया ,
मुझे आज़ाद कर गया..
दिल महफूज़ और
रिश्ते आज़ाद कर गया I
रंग बदल ने से पहले
तसबीर सामने आए
मंज़ूरे खुदा यही था.....
सारे आम
जो कबुल ना था,
कहानी मे आए शायद मंज़ूर था I
दिल की आवाज़ को हम ने
इस दर्पण में उतार दी,
जो दर्पण भी आप हो
साया दिखे, बाकी गुम हो ई
रचना: प्रशांत