Friday 26 August 2016

मदहोशी की आलम थी...


मदहोशी की आलम थी, 
होश की बात निकल आई I 

डर डर के कुछ लिख डाले,
मज़ाक थे हम , नज़र दे डाले
बात होश की थी ,
आज बेहोशी में जुबाँ दे डाले I 

कुछ जो, ना बने हक़ीकत
बयान हुआ और खो गया , 
मुझे आज़ाद कर गया..
दिल महफूज़ और
रिश्ते आज़ाद कर गया I 

रंग बदल ने से पहले 
तसबीर सामने आए 
मंज़ूरे खुदा यही था.....
सारे आम 
जो कबुल ना था, 
कहानी मे आए शायद मंज़ूर था I 

दिल की आवाज़ को हम ने 
इस दर्पण में उतार दी, 
जो दर्पण भी आप हो 
साया दिखे, बाकी गुम हो ई

रचना: प्रशांत  

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