चित्र साभार: गूगल |
कुछ ख्वाब अधूरे से बार बार दिखे,
जो हमनाक़ाब हैं,वो कभी कभार दिखे I
जो हमें रूह में सजाये हुए हैं,
उनको ये उनकी सौतन ही दिखे I
ख्वाइशें आज भी अजनबी सी खींचे,
हमजान जो ये मुस्कुरा के कहें की,
दिलफ़ेंको के शहंशाह हो तुम,
तो लो ये ताज महल हुआ तुम्हारा करो ना गम I
वरना हम लाखों में एक आज भी हैं,
हम पे मरने वाले ज़िंदा आज भी हैं,
हम कहें सुनो वो मेरी हमनाम,
ये शाम होगी एक अजनबी के नाम I
रचना: प्रशांत पांडा
रचना: प्रशांत पांडा
###
No comments:
Post a Comment