डर के रिश्ते!
जब रहे ना
प्यार अपने करम
के धरम से
,
कुछ ना मिले
मुझे डर डर
के जीने से,
क्यू ए प्यार
चाहे, अपने अपनो
से रहे,
जब तक़दीर हमारा लिखा बदल
ना पाए,
प्यार और डर
यू हीं , साथ
साथ जागे,
रिशतों को
नाम देने से,
डर और लगे,
रिश्ते जो
अब रंग देने
से रहे ,
उसे मुँह मोड़
देना आप भी
चाहे I
ना समझ प्यार,
हर लगाव को
तुम,
कहीं तुम
से ये डर,
ना करे प्यार
गुम,
रिश्ते उलझन ना
हो, यह डर
सोते हुए भी जागे,
कही रिश्ता, रिश्ता हीं
न रहे
इसका डर और
लगे I
रचना : प्रशांत
No comments:
Post a Comment