बात एक पान की थी,
बात किसी की शान की थी I
कभी प्यार की तो कभी प्यास की,
शौक के शौक़ीन हम भी हैं I
निकल पड़े हम अल सुबह,
अपने शौक में डूबने को I
हमें शौक हैं ख़ुद को नरगिसी सुबह में डूबोने का ,
हमें शौक हैं ख़ुद को गीले ओस में भिगोने का I
सुबह की ताज़गी छांट रही थी हमारी खुमारी ,
हम नापते थे पगडण्डी जैसे काठ काटती हैं आरी I
ज्यूँ हीं हमने एक कदम था और बढ़ाया ,
एक रंगीन सा चेहरा हमारे आगे लहराया I
मुँह में था उनके पान, और पीछे खड़ी थी एक फ़ौज़ ,
जो थी उनकी शान I
उनकी नवाबी ठाट देखकर हम जान गए उनकी पहचान ,
हम बोल चाल की भाषा में नेताजी कहके देते हैं उनको मान I
जैसे हीं एक गिलौरी ने अपना समय पूरा किया,
दूसरी गिलौरी पेश करने का आया फरमान I
पान की डिब्बी ख़ाली, नेताजी देंगे गाली,
चमचों के सूख गए प्राण , फिर आया एक ज्ञानी चमचे को ध्यान ,
पास के मोहल्ले में बसती हैं एक पान की दुकान,
वो भगा जैसे भागता है तूफ़ान I
इस बीच नेताजी के मुँह की होली थी सूखी,
चमचों की सांस थी अटकी जब नेताजी ने अपनी दांत थी भिंची I
सभी कर रहे थे प्रार्थना ,कहीं झेलीं न पड़े यातना I
इतने में आ गया तूफ़ान लिए हाथ में पान I
नेताजी की बांछें खिल गयी, चमचों को भी सांसें मिल गई I
दांत ने कचरा पान को, जैसे सुबह ने पछड़ा शाम को ,
चमचों ने याद किया राम को , हम चल पड़े अपने काम को I
बात एक पान की थी,
बात किसी के शान की थी I
रचना : प्रशांत
बात किसी की शान की थी I
कभी प्यार की तो कभी प्यास की,
शौक के शौक़ीन हम भी हैं I
निकल पड़े हम अल सुबह,
अपने शौक में डूबने को I
हमें शौक हैं ख़ुद को नरगिसी सुबह में डूबोने का ,
हमें शौक हैं ख़ुद को गीले ओस में भिगोने का I
सुबह की ताज़गी छांट रही थी हमारी खुमारी ,
हम नापते थे पगडण्डी जैसे काठ काटती हैं आरी I
ज्यूँ हीं हमने एक कदम था और बढ़ाया ,
एक रंगीन सा चेहरा हमारे आगे लहराया I
मुँह में था उनके पान, और पीछे खड़ी थी एक फ़ौज़ ,
जो थी उनकी शान I
उनकी नवाबी ठाट देखकर हम जान गए उनकी पहचान ,
हम बोल चाल की भाषा में नेताजी कहके देते हैं उनको मान I
जैसे हीं एक गिलौरी ने अपना समय पूरा किया,
दूसरी गिलौरी पेश करने का आया फरमान I
पान की डिब्बी ख़ाली, नेताजी देंगे गाली,
चमचों के सूख गए प्राण , फिर आया एक ज्ञानी चमचे को ध्यान ,
पास के मोहल्ले में बसती हैं एक पान की दुकान,
वो भगा जैसे भागता है तूफ़ान I
इस बीच नेताजी के मुँह की होली थी सूखी,
चमचों की सांस थी अटकी जब नेताजी ने अपनी दांत थी भिंची I
सभी कर रहे थे प्रार्थना ,कहीं झेलीं न पड़े यातना I
इतने में आ गया तूफ़ान लिए हाथ में पान I
नेताजी की बांछें खिल गयी, चमचों को भी सांसें मिल गई I
दांत ने कचरा पान को, जैसे सुबह ने पछड़ा शाम को ,
चमचों ने याद किया राम को , हम चल पड़े अपने काम को I
बात एक पान की थी,
बात किसी के शान की थी I
रचना : प्रशांत
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