जिस्म न सही पर आवाज़ तो बुलंद है,
वक़्त ना सही पर इरादे तो बुलंद हैं I
क्या हुआ,नहीं हुआ,
इस सोच से वो आगे बढ़ते गए,
खुद खड़े ना हो पाये,
पर कितनो की मंज़िलें बनाते गए I
वो लुटाते गए और लूट भी गए,
पर हां वो ही ज़न्नत बनाते गए I
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रचना: प्रशांत
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