शौच इस देश की है एक बड़ी
समस्या
जाने कैसे लोग बैठ जाते हैं जहाँ तहाँ
गली नुक्कड़ में , यहाँ वहाँ , कहाँ कहाँ
रेलवे के किनारे किनारे, नदी नालाओं के धारे
खेत खलिहानों में, नगर नगर में।
यह प्रॉबलेम बड़ी ही गम्भीर है
नयी नवेली दुल्हन पर यह भारी है
कहाँ जाए घुन्घट ओढ़ , सुबह की घड़ियों में
सारी कायनात से नज़र चुरा
कहाँ बैठ जाए वह ख़ुद को हल्का करने
न कोई जगह है सुरक्षित , न कोई जहान
न कोई अपना जिसे वह हाले दिल करे बयान।
रात के घने अन्धेरे में बुढ़ापे के दौर में
जब सासुमां उठती है
डगमगा जाते हैं पैर बाहर जाने को
बच्चे बैठ जाते हैं आँगन में ही पेट साफ़ करने को
और गंदगी फैल जाती है मक्खी मच्छर को न्योता देने को
फिर मलेरिया , दस्त , खाँसी बुखार के आने जाने को
अर्थिआं उठेंगे शमशान को जाने को
शर्मशार होगा देश देख यह नज़ारे को।
बात इतनी ही थी बस एक सौचालय की
न इमारतों की न कि ऊंची ऊँची महलों की
घर मकान बना लेते हैं बड़े बड़े
रस्ते , मॉल खड़े हो जाते हैं पल भर में
पर बात जब आती है सौच की
तब आ जाती है याद परम्परा की
खुले में आसमान के नीचे ,
प्रकृति की गोद में बैठ जाने की शान की।
जाने कैसे लोग बैठ जाते हैं जहाँ तहाँ
गली नुक्कड़ में , यहाँ वहाँ , कहाँ कहाँ
रेलवे के किनारे किनारे, नदी नालाओं के धारे
खेत खलिहानों में, नगर नगर में।
यह प्रॉबलेम बड़ी ही गम्भीर है
नयी नवेली दुल्हन पर यह भारी है
कहाँ जाए घुन्घट ओढ़ , सुबह की घड़ियों में
सारी कायनात से नज़र चुरा
कहाँ बैठ जाए वह ख़ुद को हल्का करने
न कोई जगह है सुरक्षित , न कोई जहान
न कोई अपना जिसे वह हाले दिल करे बयान।
रात के घने अन्धेरे में बुढ़ापे के दौर में
जब सासुमां उठती है
डगमगा जाते हैं पैर बाहर जाने को
बच्चे बैठ जाते हैं आँगन में ही पेट साफ़ करने को
और गंदगी फैल जाती है मक्खी मच्छर को न्योता देने को
फिर मलेरिया , दस्त , खाँसी बुखार के आने जाने को
अर्थिआं उठेंगे शमशान को जाने को
शर्मशार होगा देश देख यह नज़ारे को।
बात इतनी ही थी बस एक सौचालय की
न इमारतों की न कि ऊंची ऊँची महलों की
घर मकान बना लेते हैं बड़े बड़े
रस्ते , मॉल खड़े हो जाते हैं पल भर में
पर बात जब आती है सौच की
तब आ जाती है याद परम्परा की
खुले में आसमान के नीचे ,
प्रकृति की गोद में बैठ जाने की शान की।
इज़्ज़त इज़्ज़त हम करते हैं,
जिनके लिए हम जीते मरते
हैं,
एक भोर सुहानी उनकी भी हो,
एक बार आसानी उनकी भी हो
I
क्या हम ऐसा कर नहीं सकते,
जो जा सकते है मंगल को वो,
क्या अपनों का मंगल कर नहीं
सकते?
गिद्ध फिरते हैं मुँह में
लार लिए,
देखने को एक जिस्म आकर लिए
I
वो नोंच लेते हैं जिस्म और छोड़ देते हैं पिंजर
वो कांपती रहती है जीवन
भर थर थर I
गुनाह बस एक की पूरा करनी
थी उसे भोर की ज़रुरत,
पर बन गयी वो किसी के भोग
की मशक्कत I
सीता, राधा, दुर्गा... न
जाने कितने रूपों में,
हम करते हैं इनकी पूजा
,
पर जब सवाल आये हमें इनको
असली देने का सम्मान ,
हम झाँकने लगते हैं बगले और चल देते हैं अपनी दूकान I
हम बोलते हैं दिन भर ,ये
होना चाहिए ,
हम सुनते हैं दिन भर, वो
होना चाहिए ,
पर जिसके लिए होना चाहिए
क्या सुनते हैं हम उसकी,
वो रहती है चुप पर बोलती
है उसकी सिसकी I
पूछती है वो हमसे की ये
विद्वानो का देश,
भूल गया कैसे वो अपने माताओ
बहनो को,
भूल गया कैसे वो उनके रहने
सहने को,
भूल गया कैसे वो की बाकि अभी बहुत कुछ है करने को I
अगर स्वच्छ भारत की है संकल्प
पूरा करना हो अगर स्वप्न नव जागरण की
तो बना डालो सौचालय घर घर , डगर डगर
स्वर्ग बन जाए देश यह महान भविष्य में
स्वच्छता का पाठ यह सब को है पढ़ना
सौचालयों की ज़रूरत है देश को आगे बढ़ाने को।
डोमेक्स ने है एक अभियान
चलाया,
आओ उसे बढ़ावा दें हम,
डोमेक्स ने है एक बीड़ा उठाया,
आओ उसके साथ चलें हम I
रचना : मीरा पाणिग्रही एवं प्रशांत
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Very much practical..
ReplyDeleteNice and beautiful..
Hope it helps in spreading the message out to everyone.. including ourselves.. including myself..
if our PM can.. why can't we??
ReplyDeleteThanx Dibyojyoti for your visit and comment.
DeletePrashant