आज क्यू फिर यह लगे,
मैं आज़ाद मिलूं मेरी तन्हाई से,
के फिर आप आए ना आए
मैं आज़ाद मिलूं मेरी तन्हाई से I
क्यूँ मानूं की मेरा इम्तेहान बाकी है,
आपकी नज़रों से ,
क्यों ना मैं खामोश चलूँ,
और खुदा से भी दूर चलूँ I
मेरा वो आशियाना है वहाँ,
जो तेरे साये से है दूर,
खुदा जहाँ कभी आया करते हैं,
जब वो हो बन्दों से मज़बूर I
जो तेरे साये से है दूर,
खुदा जहाँ कभी आया करते हैं,
जब वो हो बन्दों से मज़बूर I
रचना: प्रशांत
क्यूँ मानूं की मेरा इम्तेहान बाकी है,
ReplyDeleteआपकी नज़रों से ,
क्यों ना मैं खामोश चलूँ,
और खुदा से भी दूर चलूँ I
बहुत शानदार !