कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है,
की मैं अगर मैं नही होता, तो क्या होता,
ना यह लिख पाता, की मैं हूँ कौन,
ना यह कह पाता, की मेरा है कौन?
एक खामोश नज़र, कोई बात बयान करे,
एक खामोश दिल, काई सदियों की बात करे,
ऐसा क्यूँ है, की चाह कर भी, मैं खामोश रहा,
फिर क्यूँ और क्यूँ, जुड़ कर भी ज़ूदा रहा I
मैं और मेरी तन्हाई, कुछ कर ना पाए,
बात करे भी तो, क्यूँ अनसुनी खुद को लगे,
ऐसा क्यूँ है, और क्यूँ ऐसा ही है,
दिखे आज ये शाया पर, ना रहे कल पे दखल I
क्या ये मुमकिन नही, की पिछे मूड जाऊं,
कुछ तो समेट लूँ , वहीँ जुड़ जाऊं ,
किसी मोड़ पे , कुछ सामान जो छोड़ा,
उससे फिर संवार सकूँ ,देख सकूँ ,
कुछ समय, फिर खामोश रह सकूँ I
क्यूँ ना समय, कुछ पल, अपना गुलाम होता,
ऐसा होता तो, क्या होता, कुछ तो होता,
जा ऊड़ , फिर उस इंसान से जा मिलता,
जिससे अपना कहता, पर कुछ कहता I
मैं और मेरी तन्हाई, अक्सर यह बाते करते है,
काफ़िर जिंदा है, खुदा के बंदे, यह काफ़ी है,
जो आज तेरे संग है, उसे साथ ले चल तू,
कफ़न दे, पुराने यादें, संभाल कर तू I
रचना: प्रशांत
No comments:
Post a Comment